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राजयोग के स्तम्भ अथवा नियम

राजयोग के स्तम्भ अथवा नियम

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वास्तव में ‘योग’ का अर्थ – ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर, सर्व शक्तिवान, पतितपावन परमात्मा शिव के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ना है ताकि आत्मा को भी शान्ति, आनन्द, प्रेम, पवित्रता, शक्ति और दिव्यगुणों की विरासत प्राप्त हो |योग के अभ्यास के लिए उसे आचरण सम्बन्धी कुछ नियमों का अथवा दिव्य अनुशासन का पालन करना होता है क्योंकि योग का उद्धेश्य मन को शुद्ध करना, दृष्टी कोण में परिवर्तन लाना और मनुष्य के चित्त को सदा प्रसन्न अथवा हर्ष-युक्त बनाना है | दूसरे शब्दों में योग की उच्च स्थिति किन्ही आधारभूत स्तम्भों पर टिकी होती है |इनमे से एक है – ब्रह्मचर्य या पवित्रता | योगी शारीरिक सुंदरता या वासना-भोग की और आकर्षित नहीं होता क्योंकि उसका दृष्टी कोण बदल चूका होता है | वह आत्मा की सुंदरता को ही पूर्ण महत्व देता है | उसका जीवन ‘ब्रहमचर्य’ शब्द के वास्तविक अर्थ में ढला होता है | अर्थात उसका मन ब्रह्म में स्थित होता है और वह देह की अपेक्षा विदेही (आत्माभिमानी) अवस्था में रहता है | अत: वह सबको भाई भाई के रूप में देखता है और आत्मिक प्रेम व सम्बन्ध का ही आनन्द लेता है | यहाँ आत्मिक स्मृति और ब्रह्मचर्य इसे ही महान शारीरिक शक्ति, कार्य-क्षमता, नैतिक बल और आत्मिक शक्ति देते है | यह उसके मनोबल को बढाते है और उसे निर्णय शक्ति, मानसिक संतुलन और कुशलता देते है |दूसरा महत्वपूर्ण स्तम्भ है – सात्विक आहार | मनुष्य जो आहार कर्ता है उसका उसके मस्तिष्क पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है | इसलिए योगी मांस, अंडे उतेजक पेय या तम्बाकू नहीं लेता | अपना पेट पालने के लिए वह अन्य जीवों की हत्या नहीं करता, न ही वह अनुचित साधनों से धन कमाता है | वह पहले भगवान को भोग लगाता और तब प्रशाद के रूप में उसे ग्रहण करता है | भगवान द्वारा स्वीकृत वह भोजन उसके मन को शान्ति व पवित्रता देता है, तभी ‘जैसा अन्न वैसा मन’ की कहावत के अनुसार उसका मन शुद्ध होता है और उसकी कामना कल्याणकारी तथा भावना शुभ बनी रहती है |अन्य महत्वपूर्ण स्तम्भ है –‘सत्संग’ | जैसा संग वैसा रंग’ – इस कहावत के अनुसार योगी सदा इस बात का ध्यान रखता है कि उसका सदा ‘सत-चित-आनन्द’ स्वरूप परमात्मा के साथ ही संग बना रहे | वह कभी भी कुसंग में अथवा अश्लील साहित्य अथवा कुविचरों में अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता | वह एक ही प्रभु की याद व लग्न में मग्न रहता है तथा अज्ञानी, मिथ्या-अभिमानी अथवा विकारी, देहधारी मनुष्यों को याद नहीं करता और न ही उनसे सम्बन्ध जोड़ता है |चौथा स्तम्भ है – दिव्यगुण | योगी सदा अन्य आत्माओं को भी अपने दिव्य-गुणों, विचारों तथा दिव्य कर्मो की सुगंध से अगरबत्ती की तरह सुगन्धित करता रहता है, न कि आसुरी स्वभाव, विचार व कर्मो के वशीभूत होता है | विनम्रता, संतोष, हर्षितमुख्ता, गम्भीरता, अंतर्मुखता, सहनशीलता और अन्य दिव्य-गुण योग का मुख्य आधार है | योगी स्वयं तो इन गुणों को धारण करता ही  है, साथ ही अन्य दुखी भूली-भटकी और अशान्त आत्माओं को भी अपने गुणों का दान करता है और उसके जीवन में सच्ची सुख-शान्ति प्रदान करता है | इन नियमों को पालन करने से ही मनुष्य सच्चा योगी जीवन बना सकता है तथा रोग, शोक, दुःख व अशान्ति रूपी भूतों के बन्धन से छुटकारा पा सकता है |

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