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18-02-18

18-02-18 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ”अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज: 02-05-83 मधुबन


”माया को दोषी बनाने के बजाए मास्टर रचता, शक्तिशाली बनो”

आज बापदादा सारे संगठन में विशेष उन आत्माओं को देख रहे हैं जो ज्ञान और योग के स्वरूप बन मास्टर रचयिता की स्टेज पर सदा स्थित रहते हैं। ज्ञानी और योगी तो सभी अपने को कहलाते हैं लेकिन ज्ञानी तू बाप समान आत्मा, योगी तू बाप समान आत्मा इसमें नम्बरवार हैं। बाप समान अर्थात् मास्टर रचता की पोजीशन में सदा स्थित रहते। इस मास्टर रचता के सहज आसन पर स्थित हुई शक्तिशाली आत्मा के आगे सारी रचना दासी के रूप में, सेवा में सहयोगी बन जाती है। मास्टर रचता सेकेण्ड में अपने शुद्ध संकल्प रूपी आर्डर से जो वायुमण्डल बनाने चाहें वह बना सकते हैं। जैसा वायब्रेशन फैलाने चाहें वैसे फैला सकते हैं। जिस शक्ति को आह्वान करें वह शक्ति सहयोगी बन जाती। जिस आत्मा को जो अप्राप्ति है वह जानकर सर्व प्राप्तियों का मास्टर दाता बन उन आत्माओं को दे सकते हैं। ऐसे शक्तिशाली मास्टर रचता सदा सहज आसनधारी कहाँ तक बने हैं, यह देख रहे थे। क्या देखा, नम्बरवार तो सब हैं ही। लेकिन ऐसे भी मास्टर रचता कहलाने वाले देखे जो अपनी रचना, संकल्प शक्ति के एक व्यर्थ संकल्प से घबरा जाते हैं। डर जाते हैं। स्मृति का प्रेशर लो हो जाता है इसलिए उमंग-उत्साह की धड़कन बहुत स्लो (Slow हो जाती है। दिलशिकस्त का पसीना निकल आता है। ऐसा होता है ना! क्या करें, कैसे करें, इसमें परेशान हो जाते हैं। गलती एक सेकेण्ड की है। अपने मास्टर रचता की पोज़ीशन से नीचे आ जाते हैं। जहाँ पोजीशन समाप्त हुआ वा विस्मृत हुआ उसी सेकण्ड माया की सेना आपोज़ीशन करने पहुँच जाती है। आह्वान कौन करता माया को? स्वयं नीचे आ जाते, पोज़ीशन की सीट को छोड़ देते तो खाली स्थान को माया अपना बना लेती है इसलिए माया कहती दोषी मैं नहीं, लेकिन आह्वान करते हैं तो मैं पहुँच जाती। समझा! अच्छा – आज तो मिलने का दिन है, फिर सुनायेंगे कि और क्या-क्या करते हैं।
सर्व मास्टर रचता, सहज आसनधारी, सदा बालक सो मालिकपन के स्मृति स्वरूप, सदा बाप समान ज्ञान युक्त, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
कुमारियों से:- कुमारियों ने अपना फैंसला कर लिया है? क्योंकि कुमारी जीवन ही फैंसले का समय होता है। फैंसले के समय पर बाप के पास पहुँच गई, कितनी भाग्यवान हो! अगर थोड़ा भी आगे जीवन चल जाती तो पिंजरे की मैना बन जाती। तो क्या बनना है – पिंजरे की मैना या स्वतंत्र पंछी? कुमारी तो स्वतंत्र पंछी है। कुमारियों को नौकरी करने की भी क्या आवश्यकता है! क्या बैंक बैलेन्स करना है? लौकिक बाप के पास रहेंगी तो भी दो रोटी मिल जायेंगी, अलौकिक के पास रहेंगी तो भी कोई कमी नहीं, फिर नौकरी क्यों करती? क्या सेन्टर पर रहने में डर लगता है! अगर कहते ममता है तो भी दु:ख की लहर आ सकती है। वैसे भी कुमारी घर में नहीं रहती। इसी नशे में रहो – हम हैं बाप के तख्तनशीन। सतयुग का राज्य तख्त भी इस तख्त के आगे कुछ नहीं है। सदा ताज और तिलकधारी हैं, इस स्मृति में रहो। अगर कोई को बैठने के लिए बढ़िया आसन मिल जाए तो छोड़ेगा कैसे! बनना है तो श्रेष्ठ ही बनना है, हाँ तो हाँ। मरना है तो धक से। यही मरना मीठा है। अगर लक्ष्य पक्का है तो कोई भी हिला नहीं सकता। लक्ष्य कच्चा है तो कई बहाने, कई बातें आयेंगी जो रूकावट डालेंगी इसलिए सदा दृढ़ संकल्प करना।
अधरकुमारों के ग्रुप से:- सभी प्रकार की मेहनत से बाप ने छुड़ा दिया है ना? भक्ति की मेहनत से छूट गये और गृहस्थी जीवन की मेहनत से भी छूट गये। गृहस्थी जीवन में ट्रस्टी बन गये तो मेहनत खत्म हो गई ना। और भक्ति का फल मिल गया तो भक्ति का भटकना अर्थात् मेहनत खत्म हो गई। भक्ति का फल खाने वाले हैं, ऐसा समझते हो? वैसे भक्ति का फल ज्ञान कहते हैं, लेकिन आप लोगों को भक्ति का फल स्वयं ज्ञान दाता मिल गया। तो भक्ति का फल भी मिला और गृहस्थी के जो दु:ख, अशान्ति के झंझट थे वह भी खत्म हो गये, दोनों से मुक्त हो गये। जीवनबन्ध से जीवनमुक्त आत्मायें हो गई। जब कोई बन्धन से मुक्त हो जाता है तो खुशी में नाचता है। आप भी बन्धनमुक्त आत्मायें सदा खुशी में नाचते रहो। बस गीत गाओ और खुशी में नाचो। यह तो सहज काम है ना! सदा याद रखो जीवनमुक्त आत्मायें हैं। सब बन्धन समाप्त हो गये, मेहनत से छूट गये, मुहब्बत में आ गये। तो सदा हल्के होकर उड़ो। पुजारी से पूज्य, दु:खी से सुखी, काँटों से फूल बन गये, कितना अन्तर हो गया! अभी पुरानी कलियुगी दुनिया के कोई भी संस्कार न रहें। अगर पुरानी दुनिया का कोई भी पुराना संस्कार रह गया तो वह अपनी तरफ खींच लेगा इसलिए सदा नई जीवन, नये संस्कार। श्रेष्ठ जीवन है तो श्रेष्ठ संस्कार चाहिए। श्रेष्ठ संस्कार हैं ही स्व कल्याण और विश्व कल्याण करना। ऐसे संस्कार भर गये हैं? स्व कल्याण और विश्व कल्याण के सिवाए और कोई संस्कार होंगे तो इस जीवन में विघ्न डालेंगे इसलिए पुराने संस्कार सब समाप्त। सदा यह स्मृति में रहे कि मैं रूहानी गुलाब हूँ। रूहानी गुलाब अर्थात् सदा रूहानी खुशबू फैलाने वाले। जैसे रूहे गुलाब अपनी खुशबू देता है, उसका रंग रूप भी अच्छा, खुशबू भी अच्छी सबको अपने तरफ आकर्षित भी करता है, ऐसे आप भी बाप के बगीचे के रूहानी गुलाब हो। गुलाब सदा पूजा में अर्पण किया जाता है। रूहानी गुलाब भी बाप के आगे अर्पित होते हैं। यह यज्ञ सेवाधारी बनना भी अर्पण होना है। अर्पण होना यह नहीं कि एक स्थान पर रहना। कहाँ भी रहें लेकिन श्रीमत पर रहें। अपनापन जरा भी मिक्स न हो। ऐसे अपने को भाग्यवान खुशबूदार रूहानी गुलाब समझते हो ना! सदा इसी स्मृति में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के रूहानी गुलाब हैं – यही नशा सदा रहे। नशे में रहो और बाप के गुणों के गीत गाते रहो। इस ईश्वरीय नशे में जो भी बोलेंगे उससे भाग्य बनेगा।
सदा अपने को विजयी पाण्डव समझ कर चलो। पाण्डवों की विजय कल्प-कल्प की प्रसिद्ध है। 5 होते भी विजयी थे। विजय का कारण, बाप साथी था। जैसे बाप सदा विजयी है वैसे बाप का बनने वाले भी सदा विजयी। यही स्मृति में रहे कि हम सदा विजयी रत्न हैं तो यह बात भी बड़ा नशा और खुशी दिलाती है। जब पाण्डवों की कहानी सुनते हो तो क्या लगता है? यह हमारी कहानी है। निमित्त एक अर्जुन कहने में आता है, दुनिया के हिसाब से 5 हैं, लेकिन हैं सदा विजयी। यही स्मृति सदा ताज़ी रहे। ऐसी स्पष्ट स्मृति हो जैसे कल की बात है। सभी ने घर बैठे भाग्य ले लिया है ना! घर बैठे ऐसा श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ भाग्य मिला है जो अन्त तक गाया जायेगा। बाप के घर में आये, अपने घर में आये, मनाया, खाया, खेला… वैसे भी जब थक जाते हैं तो रेस्ट में चले जाते हैं। यहाँ भी बिजनेस करके, नौकरी करके, थक कर आते हो और यहाँ आते ही कमल बन जाते हो। बाप के सिवाए और कोई दिखाई नहीं देता, रेस्ट मिल जाती है। सिवाए एक बाप से मिलने, उनकी बातें सुनने, याद करने… बस यही काम है। तो थकावट उतरी, रिफ्रेश हो गए ना। चाहे दो घण्टे के लिए भी कोई आवे तो भी रिफ्रेश हो जाते हैं क्योंकि यह स्थान ही रिफ्रेश होने का है। यहाँ आना ही रिफ्रेश होना है। अच्छा –
विदाई के समय :- एक-एक बच्चा एक दो से अधिक प्रिय है। सभी में अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। चाहे लास्ट नम्बर भी है लेकिन बाप का तो बच्चा ही है। कैसे भी बच्चे हैं लेकिन फिर भी त्याग और भाग्य तो पा लिया है ना इसलिए सभी अपने को बाप के प्रिय समझो। चाहे नम्बरवार हैं लेकिन याद-प्यार तो सबको मिलता है। बापदादा सबको सिक व प्रेम से याद-प्यार देते हैं। सिक व प्रेम सभी के लिए एक जैसा है। सभी सिकीलधे स्नेही, बाप की भुजायें हो। इसलिए अपनी भुजायें तो जरूर प्रिय लगेंगी ना। अपनी भुजायें अप्रिय होती हैं क्या! लास्ट नम्बर भी तो कोटों में कोई है ना! तो कोटों से तो प्रिय हो ही गये ना! अच्छा – ओम् शान्ति।
अव्यक्त महावाक्य
“सन्तुष्टमणि बन सदा सन्तुष्ट रहो और सबको सन्तुष्ट करो”
बापदादा चाहते हैं कि हर एक बच्चा यह पूरा ही वर्ष किसी से जब भी मिले, उसे सन्तुष्टता का सहयोग दे। स्वयं भी सन्तुष्ट रहे और दूसरों को भी सन्तुष्ट करे। इस सीजन का स्वमान है – सन्तुष्टमणि इसलिए सदा सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना – इस स्वमान की सीट पर सदा एकाग्र रहना। आज के समय में टेन्शन और परेशानियाँ बहुत हैं, इस कारण असन्तुष्टता बढ़ती जा रही है। ऐसे समय पर आप सभी सन्तुष्टमणियाँ अपने सन्तुष्टता की रोशनी से औरों को भी सन्तुष्ट बनाओ। पहले स्व से स्वयं सन्तुष्ट रहो, फिर सेवा में सन्तुष्ट रहो फिर सम्बन्ध में सन्तुष्ट रहो तब ही सन्तुष्टमणि कहलायेंगे। बापदादा बच्चों को निरन्तर सच्चे सेवाधारी बनने के लिए कहते हैं, लेकिन अगर नाम सेवा हो और स्वयं भी डिस्टर्ब हो, दूसरे को भी डिस्टर्ब करे, ऐसी सेवा न करना अच्छा है क्योंकि सेवा का विशेष गुण सन्तुष्टता है। जहाँ सन्तुष्टता नहीं, चाहे स्वयं से, चाहे सम्पर्क वालों से, वह सेवा न स्वयं को फल की प्राप्ति करायेगी न दूसरों को। इससे स्वयं अपने को पहले सन्तुष्टमणी बनाए फिर सेवा में आओ तो अच्छा है। नहीं तो सूक्ष्म बोझ चढ़ता है और वह बोझ उड़ती कला में विघ्न रुप बन जाता है। सदा निर्विघ्न, सदा विघ्न-विनाशक और सदा सन्तुष्ट रहना तथा सर्व को सन्तुष्ट करना – सेवाधारियों को यही सर्टीफिकेट सदा लेते रहना है। यह सर्टीफिकेट लेना अर्थात् तख्तनशीन होना। सदा सन्तुष्ट रहकर सर्व को सन्तुष्ट करने का लक्ष्य रखो। जिस आत्मा को सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होगी, वह सदा सन्तुष्ट होगी। उसके चेहरे पर सदा प्रसन्नता की निशानी दिखाई देगी। सेवाधारी जब स्व से और सर्व से सन्तुष्ट होते हैं तो सेवा का, सहयोग का उमंग-उत्साह स्वत: होता है। कहना कराना नहीं पड़ता, सन्तुष्टता सहज ही उमंग-उल्हास में लाती है। सेवाधारी का विशेष यही लक्ष्य हो कि सन्तुष्ट रहना है और करना है। जितना अपने को सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न अनुभव करेंगे उतना सन्तुष्ट रहेंगे। अगर जरा भी कमी की महसूसता हुई तो जहाँ कमी है वहाँ असन्तुष्टता है। भल अपना राज्य नहीं है इसलिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है परन्तु यहाँ प्राबलम तो खेल हो गई है, हिम्मत रखने से समय पर सहयोग मिल जाता है इसलिए अपनी सन्तुष्टता के साथ-साथ स्वयं की श्रेष्ठ स्थिति से सर्व आत्माओं को सन्तुष्टता का सहयोग दो। कराने वाला करा रहा है, मैं सिर्फ निमित्त बन कार्य कर रही हूँ – इस स्मृति में रहना यही सेवाधारी की विशेषता है। इससे सेवा में वा स्व पुरुषार्थ में सदा सन्तुष्ट रहेंगे और जिन्हों के निमित्त बनेंगे उन्हों में भी सन्तुष्टता होगी। सदा सन्तुष्ट रहना और दूसरों को रखना – यही विशेषता है।
ब्राह्मण अर्थात् समझदार, वे सदा स्वयं भी सन्तुष्ट रहेंगे और दूसरों को भी रखेंगे। अगर दूसरे के असन्तुष्ट करने से असन्तुष्ट होते तो संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का सुख नहीं ले सकते। शक्ति स्वरूप बन दूसरों के वायुमण्डल से स्वयं को किनारे कर लेना अर्थात् अपने को सेफ कर लेना यही साधन है इस लक्ष्य को प्राप्त करने का। जो दिल से सेवा करते वा याद करते, उन्हों को मेहनत कम और सन्तुष्टता ज्यादा होती और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नॉलेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता भी हो जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। यही सोचते रहेंगे – हुआ तो अच्छा, लेकिन फिर भी, फिर भी… करते रहेंगे और दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे। सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है। अगर तृप्त आत्मा नहीं होंगे, चाहे शरीर की भूख, चाहे मन की भूख होगी तो जितना भी मिलेगा, तृप्त आत्मा न होने कारण सदा ही अतृप्त रहेंगे। रॉयल आत्मायें सदा थोड़े में भी भरपूर रहती हैं। जहाँ भरपूरता है वहाँ सन्तुष्टता है। जो सेवा असन्तुष्ट बनाये वो सेवा, सेवा नहीं है। सेवा का अर्थ ही है मेवा देने वाली सेवा। अगर सेवा में असन्तुष्टता है तो सेवा छोड़ दो लेकिन सन्तुष्टता नहीं छोड़ो। सदा हद की चाहना से परे, सम्पन्न रहो तो समान बन जायेंगे। संगमयुग का विशेष वरदान सन्तुष्टता है, इस सन्तुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। आप ब्राह्मणों का गायन है – ‘अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खजाने में अथवा ब्राह्मणों के जीवन में’, तो फिर असन्तुष्टता क्यों? जब वरदाता, दाता के भण्डार भरपूर हैं, इतनी बड़ी प्राप्ति है, फिर असन्तुष्टता क्यों? जो सन्तुष्टमणियां हैं – वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सदा सन्तुष्ट होंगी; उनके मन और तन में सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्म-भोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी। सन्तुष्ट आत्मायें सदा नि:स्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेंगी; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेंगी – न भाग्यविधाता पर, न ड्रामा पर, न व्यक्ति पर, न शरीर के हिसाब-किताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है। वे सदा नि:स्वार्थ, निर्दोष वृत्ति-दृष्टि वाली होंगी। संगमयुग की विशेषता सन्तुष्टता है, यही ब्राह्मण जीवन की विशेष प्राप्ति है। सन्तुष्टता और प्रसन्नता नहीं तो ब्राह्मण बनने का लाभ नहीं इसलिए सन्तुष्ट रहो और सबको सन्तुष्ट करो, इसी में सच्चा सुख है, यही सच्ची सेवा है।

वरदान:

दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा अपने रजिस्टर को बेदाग रखने वाले कर्मों की गति के ज्ञाता भव

ब्राह्मण जन्म लेते ही हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिलता है। इस दिव्य बुद्धि पर किसी भी समस्या का, संग का वा मनमत का प्रभाव न पड़े तब रजिस्टर बेदाग रह सकता है। लेकिन यदि समय पर दिव्य बुद्धि काम नहीं करती तो रजिस्टर में दाग लग जाता है, इसलिए कहा जाता है कर्मों की लीला अति गुह्य है। दुनिया वाले तो हर कदम में कर्मों को कूटते हैं लेकिन आप कर्मों की गति के ज्ञाता बच्चे कभी कर्म कूट नहीं सकते। आप तो कहेंगे वाह मेरे श्रेष्ठ कर्म।

स्लोगन:

पवित्रता की गहन धारणा से ही अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होती है।

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