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08-12-19

08-12-19 प्रात:मुरली ओम् शान्ति ”अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज: 18-03-85 मधुबन


सन्तुष्टता

आज दिलवाला बाप अपने स्नेही दिलतख्तनशीन बच्चों से दिल की रूह-रूहान करने आये हैं। दिलवाला अपने सच्ची दिल वालों से दिल की लेन-देन करने, दिल का हाल-चाल सुनने के लिए आये हैं। रूहानी बाप रूहों से रूह-रूहान करते हैं। यह रूहों की रूह-रूहान सिर्फ इस समय ही अनुभव कर सकते हो। आप रूहों में इतनी स्नेह की शक्ति है जो रूहों के रचयिता बाप को रूह-रूहाण के लिए निर्वाण से वाणी में ले आते हो। ऐसी श्रेष्ठ रूह हो जो बन्धनमुक्त बाप को भी स्नेह के बन्धन में बांध देते हो। दुनिया वाले बन्धन से छुड़ाने वाले कह कर पुकार रहे हैं और ऐसे बन्धन-मुक्त बाप, बच्चों के स्नेह के बन्धन में सदा बंधे हुए हैं। बाँधने में होशियार हो। जब भी याद करते हो तो बाप हाज़िर है ना, हज़ूर हाज़िर है। तो आज विशेष डबल विदेशी बच्चों से रूह-रूहान करने आये हैं। अभी सीज़न में विशेष टर्न भी डबल विदेशियों का है। मैजारिटी डबल विदेशी ही आये हुए हैं। मधुबन निवासी तो हैं ही मधुबन के श्रेष्ठ स्थान निवासी। एक ही स्थान पर बैठे हुए विश्व की वैराइटी आत्माओं का मिलन मेला देखने वाले हैं। जो आते हैं वह जाते हैं लेकिन मधुबन निवासी तो सदा रहते हैं!
आज विशेष डबल विदेशी बच्चों से पूछ रहे हैं कि सभी सन्तुष्ट मणियाँ बन बापदादा के ताज में चमक रहे हो? सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो? सदा सन्तुष्ट हो? कभी स्वयं से असंतुष्ट वा कभी ब्राह्मण आत्माओं से असंतुष्ट वा कभी अपने संस्कारों से असंतुष्ट वा कभी वायुमण्डल के प्रभाव से असंतुष्ट तो नहीं होते हो ना! सदा सब बातों से संतुष्ट हैं? कभी संतुष्ट कभी असंतुष्ट को सन्तुष्ट मणी कहेंगे? आप सबने कहा ना कि हम सन्तुष्ट मणी हैं। फिर ऐसे तो नहीं कहेंगे कि हम तो सन्तुष्ट हैं लेकिन दूसरे असन्तुष्ट करते हैं। कुछ भी हो जाए लेकिन जो सन्तुष्ट आत्मायें हैं वह कब भी अपनी सन्तुष्टता की विशेषता को छोड़ नहीं सकते हैं। सन्तुष्टता ब्राह्मण जीवन का विशेष गुण कहो या खजाना कहो या विशेष जीवन का श्रृंगार है। जैसे कोई प्रिय वस्तु होती है तो प्रिय वस्तु को कभी छोड़ते नहीं हैं। सन्तुष्टता विशेषता है। सन्तुष्टता ब्राह्मण जीवन का विशेष परिवर्तन का दर्पण है। साधारण जीवन और ब्राह्मण जीवन। साधारण जीवन अर्थात् कभी सन्तुष्ट कभी असन्तुष्ट। ब्राह्मण जीवन में सन्तुष्टता की विशेषता को देख अज्ञानी भी प्रभावित होते हैं। यह परिवर्तन अनेक आत्माओं का परिवर्तन करने के निमित्त बन जाता है। सभी के मुख से यही निकलता कि यह सदा सन्तुष्ट अर्थात् खुश रहते हैं। जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ खुशी जरूर है। असन्तुष्टता खुशी को गायब करती है। यही ब्राह्मण जीवन की महिमा है। सदा सन्तुष्टता नहीं तो साधारण जीवन है। सन्तुष्टता सफलता का सहज आधार है। सन्तुष्टता सर्व ब्राह्मण परिवार के स्नेही बनाने में श्रेष्ठ साधन हैं। जो सन्तुष्ट रहेगा उसके प्रति स्वत: ही सभी का स्नेह रहेगा। सन्तुष्ट आत्मा को सदा सभी स्वयं ही समीप लाने वा हर श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे। उन्हों को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि मुझे समीप लाओ। मुझे सहयोगी बनाओ या मुझे विशेष आत्माओं की लिस्ट में लाओ। सोचना भी नहीं पड़ेगा। कहना भी नहीं पड़ेगा। सन्तुष्टता की विशेषता स्वयं ही हर कार्य में गोल्डन चांसलर बना देती हैं। स्वत: ही कार्य अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं को सन्तुष्ट आत्मा के प्रति संकल्प आयेगा ही और चांस मिलता ही रहेगा। संतुष्टता सदा सर्व के स्वभाव संस्कार को मिलाने वाली होती है। सन्तुष्ट आत्मा कभी किसी के भी स्वभाव संस्कार से घबराने वाली नहीं होती है। ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें बनी हो ना। जैसे भगवान आपके पास आया, आप नहीं गये। भाग्य स्वयं आपके पास आया। घर बैठे भगवान मिला, भाग्य मिला। घर बैठे सर्व खजानों की चाबी मिली। जब चाहो जो चाहो खजाने आपके हैं क्योंकि अधिकारी बन गये हो ना। तो ऐसे सर्व के समीप आने का, सेवा में समीप आने का चांस भी स्वत: ही मिलता है। विशेषता स्वयं ही आगे बढ़ाती है। जो सदा सन्तुष्ट रहता है उससे सभी का स्वत: ही दिल का प्यार होता है। बाहर का प्यार नहीं। एक होता है किसको राज़ी करने के लिए बाहर का प्यार करना। एक होता है दिल का प्यार। नाराज न हो उसके लिए भी प्यार करना पड़ता है। लेकिन वह प्यार को सदा लेने का पात्र नहीं बनता। सन्तुष्ट आत्मा को सदा सभी के दिल का प्यार मिलता है। चाहे कोई नया हो वा पुराना हो, कोई किसको परिचय के रूप से जानता हो या नहीं जानता हो लेकिन सन्तुष्टता उस आत्मा की पहचान दिलाती है। हर एक की दिल होगी इससे बातें करें, इससे बैठें। तो ऐसे सन्तुष्ट हो? पक्के हो ना! ऐसे तो नहीं कहते – बन रहे हैं। नहीं! बन गये हैं।
सन्तुष्ट आत्मायें सदा मायाजीत हैं ही। यह मायाजीत वालों की सभा है ना। माया से घबराने वाले तो नहीं हैं ना। माया आती किसके पास है? सभी के पास आती तो है ना! ऐसा कोई है जो कहे माया आती ही नहीं। आती सबके पास है लेकिन कोई घबराता है कोई पहचान लेता है इसलिए संभल जाता है। मर्यादा की लकीर के अन्दर रहने वाले बाप के आज्ञाकारी बच्चे माया को दूर से ही पहचान लेते हैं। पहचानने में देरी करते हैं, वा गलती करते हैं तब माया से घबरा जाते हैं। जैसे यादगार में कहानी सुनी है – सीता ने धोखा क्यों खाया? क्योंकि पहचाना नहीं। माया के स्वरूप को न पहचानने कारण धोखा खाया। अगर पहचान लें कि यह ब्राह्मण नहीं, भिखारी नहीं, रावण है तो शोक वाटिका का इतना अनुभव नहीं करना पड़ता। लेकिन पहचान देरी से आई तब धोखा खाया और धोखे के कारण दु:ख उठाना पड़ा। योगी से वियोगी बन गई। सदा साथ रहने से दूर हो गई। प्राप्ति स्वरूप आत्मा से पुकारने वाली आत्मा बन गई। कारण? पहचान कम। माया के रूप को पहचानने की शक्ति कम होने कारण माया को भगाने के बजाए स्वयं घबरा जाते हैं। पहचान कम क्यों होती है, समय पर पहचान नहीं आती, पीछे क्यों आती। इसका कारण? क्योंकि सदा बाप की श्रेष्ठ मत पर नहीं चलते। कोई समय याद करते हैं, कोई समय नहीं। कोई समय उमंग उत्साह में रहते, कोई समय नहीं रहते। जो सदा की आज्ञा को उल्लंघन करते अर्थात् आज्ञा की लकीर के अन्दर नहीं रहने के कारण माया समय पर धोखा दे देती हैं। माया में परखने की शक्ति बहुत है। माया देखती है कि इस समय यह कमजोर है। तो इस प्रकार की कमजोरी द्वारा इसको अपना बना सकते हैं। माया के आने का रास्ता है ही कमजोरी। जरा-सा भी रास्ता मिला तो झट पहुँच जाती है। जैसे आजकल डाकू क्या करते हैं! दरवाजा भले बन्द हो लेकिन वेन्टीलेटर से भी आ जाते हैं। जरा सा संकल्प मात्र भी कमजोर होना अर्थात् माया को रास्ता देना है इसलिए मायाजीत बनने का बहुत सहज साधन है, सदा बाप के साथ रहो। साथ रहना अर्थात् स्वत: ही मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहना। एक-एक विकार के पीछे विजयी बनने की मेहनत करने से छूट जायेंगे। साथ रहो तो स्वत: ही जैसे बाप वैसे आप। संग का रंग स्वत: ही लग जायेगा। बीज को छोड़ सिर्फ शाखाओं को काटने की मेहनत नहीं करो। आज काम जीत बन गये, कल क्रोध जीत बन गये, नहीं। हैं ही सदा विजयी। जब बीजरूप द्वारा बीज को खत्म कर देंगे तो बार-बार मेहनत करने से स्वत: ही छूट जायेंगे। सिर्फ बीजरूप को साथ रखो। फिर यह माया का बीज ऐसा भस्म हो जायेगा जो फिर कभी भी उस बीज से अंश भी नहीं निकल सकता। वैसे भी आग में जले हुए बीज से कभी फल नहीं निकल सकता।
तो साथ रहो, सन्तुष्ट रहो तो माया क्या करेगी! सरेन्डर हो जायेगी। माया को सरेन्डर करना नहीं आता है? अगर स्वयं सरेन्डर हैं तो माया उसके आगे सरेन्डर है ही। तो माया को सरेन्डर किया है या अभी तैयारी कर रहे हो? क्या हाल-चाल है? जैसे अपने सरेन्डर होने की सेरीमनी मनाते हो वैसे माया को सरेन्डर करने की सेरीमनी मना ली है या मनानी है? होली हो गये माना सेरीमनी हो गई, जल गई। फिर वहाँ जा करके ऐसे पत्र तो नहीं लिखेंगे कि क्या करें, माया आ गई। खुशखबरी के पत्र लिखेंगे ना। कितनी सरेन्डर सेरीमनी मनाई है, हमारी तो हो गई लेकिन और आत्माओं द्वारा भी माया को सरेन्डर कराया। ऐसे समाचार लिखेंगे ना! अच्छा!
जितने उमंग-उत्साह से आये हो उतना ही बापदादा भी सदा बच्चों को ऐसे उमंग-उत्साह से संतुष्ट आत्मा के रूप में देखने चाहते हैं। लगन तो है ही। लगन की निशानी है – जो इतना दूर से समीप पहुँच गये हो। दिन रात लगन से दिन गिनते-गिनते यहाँ पहुँच गये। लगन न होती तो पहुँचना भी मुश्किल होता। लगन है इसमें तो पास हो। पास सर्टीफिकेट मिल गया ना। हर सबजेक्ट में पास। फिर भी बापदादा बच्चों को आफरीन देते हैं क्योंकि पहचानने की नज़र तेज है। दूर रहते भी बाप को पहचान लिया। साथ अर्थात् देश में रहने वाले नहीं पहचान सकते। लेकिन आप लोग दूर बैठे भी पहचान गये। पहचान कर बाप को अपना बनाया वा बाप के बने। इसके लिए बापदादा विशेष आफरीन देते हैं। तो जैसे पहचानने में आगे गये वैसे मायाजीत बनने में भी नम्बरवन बन सदा बाप की आफरीन लेने के योग्य अवश्य बनेंगे। जो बापदादा कोई भी माया से घबराने वाली आत्मा को आपके पास भेजें कि इन बच्चों से जा करके मायाजीत बनने का अनुभव पूछो। ऐसा एक्जैम्पुल बनकर दिखाओ। जैसे मोहजीत परिवार प्रसिद्ध है वैसे मायाजीत सेन्टर प्रसिद्ध हो! यह ऐसा सेन्टर है जहाँ माया का कब वार नहीं होता। आना और बात है वार करना और बात है। तो इसमें भी नम्बर लेने वाले हो ना। इसमें नम्बर-वन कौन बनेगा? लण्डन, आस्ट्रेलिया बनेगा वा अमेरिका बनेगा? पैरिस बनेगा, जर्मन बनेगा, ब्राजील बनेगा, कौन बनेगा? जो भी बनें। बाप-दादा ऐसे चैतन्य म्युजियम एनाउन्स करेंगे। जैसे आबू का म्युजियम नम्बरवन कहते हैं। सेवा में भी तो सजावट में भी। ऐसे मायाजीत बच्चों का चैतन्य म्युजियम हो। हिम्मत है ना? उसके लिए अभी कितना समय चाहिए? गोल्डन जुबली में भी उनको इनाम देंगे जो पहले ही कुछ करके दिखायेंगे ना। लास्ट सो फास्ट हो दिखाओ। भारत वाले भी रेस करें। लेकिन आप उनसे भी आगे जाओ। बापदादा सभी को आगे जाने का चांस दे रहे हैं। 8 नम्बर में आ जाओ। आठ को ही इनाम मिलेगा। ऐसे नहीं सिर्फ एक को मिलेगा। यह तो नहीं सोचते हो – लण्डन और आस्ट्रेलिया तो पुराने हैं, हम तो अभी नये-नये हैं। सबसे छोटा नया कौन सा सेन्टर है? सबसे छोटा जो होता है वह सभी को प्यारा होता है। वैसे भी छोटों को कहा जाता है बड़े तो बड़े हैं लेकिन छोटे बाप समान हैं। सभी कर सकते हैं। कोई बड़ी बात नहीं। ग्रीस, टैम्पा, रोम यह छोटे हैं। यह तो बड़े उमंग में रहने वाले हैं। टैम्पा क्या करेगा? टैम्पल बनायेगा? वह रमणीक बच्ची आई थी ना-उनको कहा था कि टैम्पा को टैम्पुल बनाओ। जो भी टैम्पा में आवे तो हर एक चैतन्य मूर्ति को देख हर्षित हो। आप शक्तिशाली तैयार हो जाओ। सिर्फ आप राजे तैयार हो जाओ फिर प्रजा झट बनेगी। रॉयल फैमली बनने में टाइम लगता है। यह रॉयल फैमली, राजधानी बन रही है फिर प्रजा तो ढेर आ जायेगी। इतनी आ जायेगी जो आप देख-देख तंग हो जायेंगे। कहेंगे बाबा अब बस करो लेकिन पहले राज्य अधिकारी तख्तनशीन तो बन जायें ना। ताजधारी, तिलकधारी बन जाऍ तब तो प्रजा भी जी हजूर कहेगी। ताजधारी होगा नहीं तो प्रजा कैसे मानेगी कि यह राजा है। रॉयल फैमली बनने में टाइम लगता है। आप अच्छे समय पर पहुँचे हो जो रॉयल फैमली में आने के अधिकारी हो। अभी प्रजा का समय आने वाला है। राजा बनने की निशानी जानते हो ना। अभी से स्वराज्य अधिकारी विश्व राज्य अधिकरी बन जाओ। अभी से राज्य अधिकारी बनने वालों के समीप और सहयगी बनने वाले वहाँ भी समीप और राज्य चलाने में सहयोगी बनेंगे। अभी सेवा में सहयोगी फिर राज्य चलाने में सहयोगी। तो अभी से चेक करो। राजे हैं या कभी राजा कभी प्रजा बन जाते! कभी अधीन कभी अधिकारी। सदा के राजे हो? तो कितने आप लकी हो? यह नहीं सोचना हम तो पीछे आये हैं। वह पीछे आने वालों को सोचना पड़ेगा। आप अच्छे समय पर पहुँच गये हो इसलिए लकी हो। यह नहीं सोचना हम पीछे आये हैं राजा बन सकेंगे वा नहीं! रॉयल फैमली में आ सकेंगे वा नहीं! सदा यह सोचो हम नहीं आयेगे तो कौन आयेंगे? आना ही है, पता नहीं यह कर सकेंगे वा नहीं। पता नहीं, यह होगा वा क्या… नहीं। पता है कि हमने हर कल्प किया है, कर रहे हैं और सदा करेंगे। समझा!
कभी यह भी नहीं सोचना हम विदेशी हैं, यह देशी हैं। यह इण्डियन हैं, हम फारेनर हैं। हमारा तरीका अपना, इन्हों का अपना। यह तो सिर्फ परिचय के लिए डबल विदेशी कहते हैं। जैसे यहाँ भी कहते यह कर्नाटक वाले हैं, यह यू.पी. वाले हैं। हो तो ब्राह्मण ना। चाहे इन्डियन हों, चाहे विदेशी हों, सभी ब्राह्मण हैं। हम विदेशी हैं, यह सोचना ही रांग है। नया जन्म नहीं लिया है क्या? पुराना जन्म तो विदेश में था। नया जन्म तो ब्रह्मा की गोदी में हुआ ना। यह सिर्फ परिचय के लिए कहा जाता। लेकिन संस्कार में वा समझने में कभी भी अन्तर नहीं समझना। ब्राह्मण वंश के हो ना! अमेरिका, अफ्रीका वंश के तो नहीं हो ना। सभी का परिचय क्या देंगे। शिव वंशी ब्रह्मा कुमार कुमारियाँ। एक ही वंश हो गया ना। कभी भी बोलने में फर्क नहीं रखो। इन्डियन ऐसे करते, विदेशी ऐसे करते, नहीं। हम एक हैं। बाप एक है। रास्ता एक है। रीति रसम एक है। स्वभाव संस्कार एक हैं। फिर देशी और विदेशी अन्तर कहाँ से आया? अपने को विदेशी कहने से दूर हो जायेंगे। हम ब्रह्मा वंशी सब ब्राह्मण हैं। हम विदेशी हैं, हम गुजराती हैं… इसलिए यह होता है। नहीं, सब एक बाप के हैं। यही तो विशेषता है जो भिन्न-भिन्न संस्कार मिलकर एक हो गये हैं। भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न-भिन्न जाति-पांति सब समाप्त हो गया। एक के हो गये अर्थात् एक हो गये। समझा! अच्छा।
सदा सन्तुष्टता की विशेषता वाली विशेष आत्माओं को, सदा सन्तुष्टता द्वारा सेवा में सफलता पाने वाले बच्चों को, सदा राज्य अधिकारी सो विश्व राज्य अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा निश्चय द्वारा हर कार्य में नम्बरवन बनने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

वरदान:

साधनों को निर्लेप वा न्यारे बन कार्य में लगाने वाले बेहद के वैरागी भव

बेहद के वैरागी अर्थात् किसी में भी लगाव नहीं, सदा बाप के प्यारे। यह प्यारापन ही न्यारा बनाता है। बाप का प्यारा नहीं तो न्यारा भी नहीं बन सकते, लगाव में आ जायेंगे। जो बाप का प्यारा है वह सर्व आकर्षणों से परे अर्थात् न्यारा होगा – इसको ही कहते हैं निर्लेप स्थिति। कोई भी हद के आकर्षण की लेप में आने वाले नहीं। रचना वा साधनों को निर्लेप होकर कार्य में लायें – ऐसे बेहद के वैरागी ही राजऋषि हैं।

स्लोगन:

दिल की सच्चाई-सफाई हो तो साहेब राज़ी हो जायेगा।

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