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28-03-21

28-03-21 प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज: 27-11-87 मधुबन


बेहद के वैरागी ही सच्चे राजऋषि

आज बापदादा सर्व राजऋषियों की दरबार को देख रहे हैं। सारे कल्प में राजाओं की दरबार अनेक बार लगती है लेकिन यह राजऋषियों की दरबार इस संगमयुग पर ही लगती है। राजा भी हो और ऋषि भी हो। यह विशेषता इस समय की इस दरबार की गाई हुई है। एक तरफ राजाई अर्थात् सर्व प्राप्तियों के अधिकारी और दूसरे तरफ ऋषि अर्थात् बेहद के वैराग्य वृत्ति वाले। एक तरफ सर्व प्राप्ति के अधिकार का नशा और दूसरे तरफ बेहद के वैराग्य का अलौकिक नशा। जितना ही श्रेष्ठ भाग्य उतना ही श्रेष्ठ त्याग। दोनों का बैलेन्स। इसको कहते हैं राजऋषि। ऐसे राजऋषि बच्चों का बैलेन्स देख रहे थे। अभी-अभी अधिकारीपन का नशा और अभी-अभी वैराग्य वृत्ति का नशा – इस प्रैक्टिस में कहाँ तक स्थित हो सकते हैं अर्थात् दोनों स्थितियों का समान अभ्यास कहाँ तक कर रहे हैं? यह चेक कर रहे थे। नम्बरवार अभ्यासी तो सब बच्चे हैं ही। लेकिन समय प्रमाण इन दोनों अभ्यास को और भी ज्यादा से ज्यादा बढ़ाते चलो। बेहद के वैराग्य वृत्ति का अर्थ ही है – वैराग्य अर्थात् किनारा करना नहीं, लेकिन सर्व प्राप्ति होते हुए भी हद की आकर्षण मन को वा बुद्धि को आकर्षण में नहीं लावे। बेहद अर्थात् मैं सम्पूर्ण सम्पन्न आत्मा बाप समान सदा सर्व कर्मेन्द्रियों की राज्य अधिकारी। इन सूक्ष्म शक्तियों मन-बुद्धि-संस्कार के भी अधिकारी। संकल्प मात्र भी अधीनता न हो। इसको कहते हैं राजऋषि अर्थात् बेहद की वैराग्य वृत्ति। यह पुरानी देह वा देह की पुरानी दुनिया वा व्यक्त भाव, वैभवों का भाव – इन सब आकर्षणों से सदा और सहज दूर रहने वाले।

जैसे साइन्स की शक्ति धरनी की आकर्षण से परे कर लेती है, ऐसे साइलेन्स की शक्ति इन सब हद की आकर्षणों से दूर ले जाती है। इसको कहते हैं सम्पूर्ण सम्पन्न बाप समान स्थिति। तो ऐसी स्थिति के अभ्यासी बने हो? स्थूल कर्मेन्द्रियाँ – यह तो बहुत मोटी बात है। कर्मेन्द्रिय-जीत बनना, यह फिर भी सहज है। लेकिन मन-बुद्धि-संस्कार, इन सूक्ष्म शक्तियों पर विजयी बनना – यह सूक्ष्म अभ्यास है। जिस समय जो संकल्प, जो संस्कार इमर्ज करने चाहें वही संकल्प, वही संस्कार सहज अपना सकें – इसको कहते हैं सूक्ष्म शक्तियों पर विजय अर्थात् राजऋषि स्थिति। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को आर्डर करते हो कि यह करो, यह न करो। हाथ नीचे करो, ऊपर करो, तो ऊपर हो जाता है ना। ऐसे संकल्प और संस्कार और निर्णयशक्ति ‘बुद्धि’ऐसे ही आर्डर पर चले। आत्मा अर्थात् राजा, मन को अर्थात् संकल्प शक्ति को आर्डर करे कि अभी-अभी एकाग्रचित हो जाओ, एक संकल्प में स्थित हो जाओ। तो राजा का आर्डर उसी घड़ी उसी प्रकार से मानना – यह है राज-अधिकारी की निशानी। ऐसे नहीं कि तीन चार मिनट के अभ्यास बाद मन माने या एकाग्रता के बजाए हलचल के बाद एकाग्र बने, इसको क्या कहेंगे? अधिकारी कहेंगे? तो ऐसी चेकिंग करो क्योंकि, पहले से ही सुनाया है कि अन्तिम समय की अन्तिम रिजल्ट का समय एक सेकेण्ड का क्वेश्चन एक ही होगा। इन सूक्ष्म शक्तियों के अधिकारी बनने का अभ्यास अगर नहीं होगा अर्थात् आपका मन आप राजा का आर्डर एक घड़ी के बजाए तीन घड़ियों में मानता है तो राज्य अधिकारी कहलायेंगें? वा एक सेकेण्ड के अन्तिम पेपर में पास होगें? कितने मार्क्स मिलेंगे?

ऐसे ही बुद्वि अर्थात् निर्णय शक्ति पर भी अधिकार हो अर्थात् जिस समय जो परिस्थिति है उसी प्रमाण, उसी घड़ी निर्णय करना – इसको कहेंगे बुद्धि पर अधिकार। ऐसे नहीं कि परिस्थिति वा समय बीत जाए, फिर निर्णय हो कि यह नहीं होना चाहिए था, अगर यह निर्णय करते तो बहुत अच्छा होता। तो समय पर और यथार्थ निर्णय होना – यह निशानी है राज्य अधिकारी आत्मा की। तो चेक करो कि सारे दिन में राज्य अधिकारी अर्थात् इन सूक्ष्म शक्तियों को भी आर्डर में चलाने वाले कहाँ तक रहे? रोज़ अपने कर्मचारियों की दरबार लगाओ। चेक करो कि स्थूल कर्मेन्द्रियाँ वा सूक्ष्म शक्तियाँ – ये कर्मचारी कन्ट्रोल में रहे वा नहीं रहे? अभी से राज्य-अधिकारी बनने के संस्कार अनेक जन्म राज्य-अधिकारी बनायेंगे। समझा? इसी प्रकार संस्कार कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? आदि, अनादि, संस्कार; अनादि शुद्ध, श्रेष्ठ पावन संस्कार हैं, सर्वगुण स्वरूप संस्कार हैं और आदि देव आत्मा के राज्य अधिकारीपन के संस्कार सर्व प्राप्ति-स्वरूप के संस्कार हैं, सम्पन्न, सम्पूर्ण के नैचुरल संस्कार हैं। तो संस्कार शक्ति के ऊपर राज्य अधिकारी अर्थात् सदा अनादि आदि संस्कार इमर्ज हों। नैचुरल संस्कार हों। मध्य अर्थात् द्वापर से प्रवेश होने वाले संस्कार अपने तरफ आकर्षित नहीं करें। संस्कारों के वश मजबूर न बनें। जैसे कहते हो ना कि मेरे पुराने संस्कार हैं। वास्तव में अनादि और आदि संस्कार ही पुराने हैं। यह तो मध्य, द्वापर से आये हुए संस्कार हैं। तो पुराने संस्कार आदि के हुए वा मध्य के हुए? कोई भी हद की आकर्षण के संस्कार अगर आकर्षित करते हैं तो संस्कारों पर राज्य अधिकारी कहेंगे? राज्य के अन्दर एक शक्ति वा एक कर्मचारी ‘कर्मेन्द्रिय’ भी अगर आर्डर पर नहीं है तो उसको सम्पूर्ण राज्य अधिकारी कहेंगे? आप सब बच्चे चैलेन्ज करते हो कि हम एक राज्य, एक धर्म, एक मत स्थापन करने वाले हैं। यह चैलेन्ज सभी ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ करते हो ना; तो वह कब स्थापन होगा? भविष्य में स्थापन होगा? स्थापना के निमित्त कौन है? ब्रह्मा है वा विष्णु है? ब्रह्मा द्वारा स्थापना होती है ना। जहाँ ब्रह्मा है तो ब्राह्मण भी साथ हैं ही। ब्रह्मा द्वारा अर्थात् ब्राह्मणों द्वारा स्थापना, वह कब होगी? संगम पर वा सतयुग में? वहाँ तो पालना होगी ना। ब्रह्मा वा ब्राह्मणों द्वारा स्थापना, यह अभी होनी है। तो पहले स्व के राज्य में देखो कि एक राज्य, एक धर्म (धारणा), एक मत है? अगर एक कर्मेन्द्रिय भी माया की दूसरी मत पर है तो एक राज्य, एक मत नहीं कहेंगे। तो पहले यह चेक करो कि एक राज्य, एक धर्म स्व के राज्य में स्थापन किया है वा कभी माया तख्त पर बैठ जाती, कभी आप बैठ जाते हो? चैलेन्ज को प्रैक्टिकल में लाया है वा नहीं – यह चेक करो। आप चाहो अनादि संस्कार और इमर्ज हो जाएं मध्य के संस्कार, तो यह अधिकारीपन नहीं हुआ ना।

तो राजऋषि अर्थात् सर्व के राज्य अधिकारी। राज्य अधिकारी सदा और सहज तब होगें जब ऋषि अर्थात् बेहद के वैराग्य वृत्ति के अभ्यासी होंगे। वैराग्य अर्थात् लगाव नहीं। सदा बाप के प्यारे। यह प्यारापन ही न्यारा बनाता है। बाप का प्यारा बन, न्यारा बन कार्य में आना – इसको कहते हैं बेहद का वैरागी। बाप का प्यारा नहीं तो न्यारा भी नहीं बन सकते, लगाव में आ जायेंगे। बाप का प्यारा और किसी व्यक्ति वा वैभव का प्यारा हो नहीं सकता। वह सदा आकर्षण से परे अर्थात् न्यारे होंगे। इसको कहते हैं निर्लेप स्थिति। कोई भी हद की आकर्षण की लेप में आने वाले नहीं। रचना वा साधनों को निर्लेप होकर कार्य में लावें। ऐसे बेहद के वैरागी, सच्चे राजऋषि बने हो? ऐसे नहीं सोचना कि सिर्फ एक वा दो कमजोरी रह गई है, सिर्फ एक सूक्ष्म शक्ति वा कर्मेन्द्रिय कन्ट्रोल में कम है, बाकी सब ठीक है। लेकिन जहाँ एक भी कमजोरी है तो वह माया का गेट है। चाहे छोटा, चाहे बड़ा गेट हो लेकिन गेट तो है ना। अगर गेट खुला रह गया तो मायाजीत, जगतजीत कैसे बन सकेंगे?

एक तरफ एक राज्य, एक धर्म की सुनहरी दुनिया का आह्वान कर रहे हो और साथ-साथ फिर कमजोरी अर्थात् माया का भी आह्वान कर रहे हो तो रिजल्ट क्या होगी? दुविधा में रह जायेंगे। इसलिए यह छोटी बात नहीं समझो। समय पड़ा है, कर लेंगे। औरों में भी तो बहुत कुछ है, मेरे में तो सिर्फ एक ही बात है। दूसरे को देखते-देखते स्वयं न रह जाओ। ‘सी ब्रह्मा फादर’ कहा हुआ है, फालो फादर कहा हुआ है। सर्व के सहयोगी, स्नेही जरूर बनो, गुण ग्राहक जरूर बनो लेकिन फालो फादर। ब्रह्मा बाप की लास्ट स्टेज राजऋषि की देखी इतना बच्चों का प्यारा होते भी, सामने देखते हुए भी न्यारापन ही देखा ना। बेहद का वैराग्य – यही स्थिति प्रैक्टिकल में देखी। कर्मभोग होते भी कर्मेन्द्रियों पर अधिकारी बन अर्थात् राजऋषि बन सम्पूर्ण स्थिति का अनुभव कराया इसलिए कहते हैं फालो फादर। तो अपने राज्य अधिकारियों, राज्य कारोबारियों को सदा देखना है। कोई भी राज्य कारोबारी कहाँ धोखा न दें। समझा? अच्छा।

आज भिन्न-भिन्न स्थानों से एक स्थान पर पहुँच गये हैं। इसी को ही नदी सागर का मेला कहा जाता है। मेले में मिलना भी होता और माल भी मिलता है इसलिए सभी मेले में पहुँच गये है। नये बच्चों की सीज़न का यह लास्ट ग्रुप है। पुरानों को भी नयों के साथ चांस मिल गया है। प्रकृति भी अभी तक प्यार से सहयोग दे रही है। लेकिन इसका एडवान्टेज नहीं लेना। नहीं तो प्रकृति भी होशियार है। अच्छा।

चारों ओर के सदा राजऋषि बच्चों को, सदा स्व पर राज्य करने वाले सदा विजयी बन निर्विघ्न राज्य कारोबार चलाने वाले राज्य अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद के वैराग्य वृत्ति में रहने वाले सभी ऋषिकुमार, कुमारियों को, सदा बाप के प्यारे बन न्यारे हो कार्य करने वाले न्यारे और प्यारे बच्चों को, सदा ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले व़फादार बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

1. अनेक बार की विजयी आत्मायें हैं, ऐसा अनुभव करते हो? विजयी बनना मुश्किल लगता है या सहज? क्योंकि जो सहज बात होती है वह सदा हो सकती है, मुश्किल बात सदा नहीं होती। जो अनेक बार कार्य किया हुआ होता है, वह स्वत: ही सहज हो जाता है। कभी कोई नया काम किया जाता है तो पहले मुश्किल लगता है लेकिन जब कर लिया जाता है तो वही मुश्किल काम सहज लगता है। तो आप सभी इस एक बार के विजयी नहीं हो, अनेक बार के विजयी हो। अनेक बार के विजयी अर्थात् सदा सहज विजय का अनुभव करने वाले। जो सहज विजयी हैं उनको हर कदम में ऐसे ही अनुभव होता कि यह सब कार्य हुए ही पड़े हैं, हर कदम में विजय हुई पड़ी है। होगी या नहीं – यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। जब निश्चय है कि अनेक बार के विजयी हैं तो होगी या नहीं होगी – यह क्वेश्चन नहीं। निश्चय की निशानी है नशा और नशे की निशानी है खुशी। जिसको नशा होगा वह सदा खुशी में रहेगा। हद के विजयी में भी कितनी खुशी होती है। जब भी कहाँ विजय प्राप्त करते हैं, तो बाजे-गाजे बजाते हैं ना। तो जिसको निश्चय और नशा है तो खुशी जरूर होगी। वह सदा खुशी में नाचता रहेगा। शरीर से तो कोई नाच सकते हैं, कोई नहीं भी नाच सकते हैं लेकिन मन में खुशी का नाचना – यह तो बेड पर बीमार भी नाच सकता है। कोई भी हो, यह नाचना सबके लिए सहज है क्योंकि विजयी होना अर्थात् स्वत: खुशी के बाजे बजना। जब बाजे बजते हैं तो पांव आपेही चलते रहते हैं। जो नहीं भी जानते होंगे, वह भी बैठे-बैठे नाचते रहेंगे। पांव हिलेगा, कांध हिलेगा। तो आप सभी अनेक बार के विजयी हो – इसी खुशी में सदा आगे बढ़ते चलो। दुनिया में सबको आवश्यकता ही है खुशी की। चाहे सब प्राप्तियां हों लेकिन खुशी की प्राप्ति नहीं है। तो जो अविनाशी खुशी की आवश्यकता दुनिया को है, वह खुशी सदा बांटते रहो।

2. अपने को भाग्यवान समझ हर कदम में श्रेष्ठ भाग्य का अनुभव करते हो? क्योंकि इस समय बाप भाग्यविधाता बन भाग्य देने के लिए आये हैं। भाग्यविधाता भाग्य बांट रहा है। बांटने के समय जो जितना लेने चाहे उतना ले सकता है। सभी को अधिकार है। जो ले, जितना ले। तो ऐसे समय पर कितना भाग्य बनाया है, यह चेक करो क्योंकि अब नहीं तो फिर कब नहीं इसलिए हर कदम में भाग्य की लकीर खींचने का कलम बाप ने सभी बच्चों को दिया है। कलम हाथ में है और छुट्टी है – जितनी लकीर खींचना चाहो उतना खींच सकते हो। कितना बढ़िया चांस है! तो सदा इस भाग्यवान समय के महत्व को जान इतना ही जमा करते हो ना? ऐसे न हो कि चाहते तो बहुत थे लेकिन कर न सके, करना तो बहुत था लेकिन किया इतना। यह अपने प्रति उल्हना रह न जाए। समझा? तो सदा भाग्य की लकीर श्रेष्ठ बनाते चलो और औरों को भी इस श्रेष्ठ भाग्य की पहचान देते चलो। ‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’ यही खुशी के गीत सदा गाते रहो।

3. सदा अपने को स्वदर्शन-चक्रधारी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? स्वदर्शन-चक्र अर्थात् सदा माया के अनेक चक्रों से छुड़ाने वाला। स्वदर्शन-चक्र सदा के लिए चक्रवर्ती राज्य भाग्य के अधिकारी बना देता है। यह स्वदर्शन-चक्र का ज्ञान इस संगमयुग पर ही प्राप्त होता है। ब्राह्मण आत्मायें हो, इसलिए स्वदर्शन-चक्रधारी हो। ब्राह्मणों को सदा चोटी पर दिखाते हैं। चोटी अर्थात् ऊंचा। ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ कर्म करने वाले, ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ धर्म (धारणाओं) में रहने वाले – ऐसे ब्राह्मण हो ना? नामधारी ब्राह्मण नहीं, काम करने वाले ब्राह्मण क्योंकि ब्राह्मणों का अभी अन्त में भी कितना नाम है! आप सच्चे ब्राह्मणों का ही यह यादगार अब तक चल रहा है। कोई भी श्रेष्ठ काम होगा तो ब्राह्मणों को ही बुलायेंगे क्योंकि ब्राह्मण ही इतने श्रेष्ठ हैं। तो किस समय इतने श्रेष्ठ बने हो? अभी बने हो, इसलिए अभी तक भी श्रेष्ठ कार्य का यादगार चला आ रहा है। हर संकल्प, हर बोल, हर कर्म श्रेष्ठ करने वाले, ऐसे स्वदर्शन-चक्रधारी श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं – सदा इसी स्मृति में रहो। अच्छा।

वरदान:-

अपने पूजन को स्मृति में रख हर कर्म पूज्यनीय बनाने वाले परमपूज्य भव

आप बच्चों की हर शक्ति का पूजन देवी- देवताओं के रूप में होता है। सूर्य देवता, वायु देवता, पृथ्वी देवी… ऐसे ही निर्भयता की शक्ति का पूजन काली देवी के रूप में है, सामना करने की शक्ति का पूजन दुर्गा के रूप में है। सन्तुष्ट रहने और करने की शक्ति का पूजन सन्तोषी माता के रूप में है। वायु समान हल्के बनने की शक्ति का पूजन पवनपुत्र के रूप में है। तो अपने इस पूजन को स्मृति में रख हर कर्म पूज्यनीय बनाओ तब परमपूज्य बनेंगे।

स्लोगन:-

जीवन में सन्तुष्टता और सरलता का सन्तुलन रखना ही सबसे बड़ी विशेषता है।

 

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